Friday 17 June 2016

हम।

हम। 

हम चाय भी पीते है,
और बारिश का पानी भी  
हमें छांव अच्छी लगती है,
और धूप सुहानी भी।

कभी हम विशाल हृदय-विस्तृत आसमान हैं,
तो कभी समंदर का अभिमान हैं  
चुस्त-मदमस्त वायु हैं कभी,
तो कभी ज्वालामुखी का उफ़ान हैं
कभी कोशिश करते है फ़िसलती रेत को मुठ्ठियों में भींचने की,
तो कभी बंजर जमीं को थाली भर मोतियों से सींचने की

कभी सिर के बल गिरकर भी हम उफ़ नहीं करते है,
और कभी झूठी फ़िसलन में सिसकते हैं
कभी अंजान राहों में भी कंधों में अपना घर लिए फिरते है,
तो कभी अपने ही घर में अनजानापन सहते है
हम नापते है कभी अपनी ही गति दूसरों के जूतों की माप से,
और कभी नाच लेते है अपने ही कदमों की थाप पे

हम इंसान हैं 
रंगो की तरह बिखरने वाले,
परिंदो की तरह हवा से लड़ने वाले  
पानी की तरह बहने वाले
हमें कहीं बंधने की आस,
तो कभी बंधनों का एहसास
हम कभी सधते है स्वयं,
और कभी हमारे दूसरों को साधने के प्रयास
हम कभी अंजली भर-भर पानी समेटते है,
और कभी शरारत के छींटे बिखेरते है
  
हम सँकरी गलियों से गुजरते है,
सड़कों पर बचकर चलते है,
डरते है इंसानो सेईश्वर से,
अनजान रास्तों  मंजिलों से,
पर फिर भी दोस्त बनते-बनाते है,
भगवान को नाराज़गी दिखाते है,
और बेनाम गलियों में  कौतूहलवश  मुड़ जाते है
नीरसता को हम अपनी प्रकृति नहीं मानते,
फिर भी स्थिरता की खाक छानते है।
हमें द्वेष पालना कुछ अच्छा नहीं लगता,
पर फिर भी चंद लोगों से दूर भागते है
हम कभी स्वयं नैतिकता का तमगा लिए घूमते है,
और कभी जाने-अनजाने ऐसे तमगे हमें पहनाए जाते है

हम इंसान हैं ,
जो कभी संत बनते है,
और कभी-कभी इंसानियत से जी भी चुराते है

हम इंसान हैं ,
जिनके वर्तमान में कुछ खेद होते है,
और भूत पर अनगिनत भेद होते है

हम इंसान हैं , 
हमारी परिभाषाएँ भी समय की तरह उत्क्रांत होतीं है,
कहीं विचित्र और कहीं संभ्रांत होती है

हम वो लोग है जो,
हिमशिखर पर समाधि साधे सिद्ध योगी नहीं होते है,
पर राहगीर बन,
अपनी मंजिलों में अनेक हिमालयों को जीते है

                                                    -गोल्डी तिवारी।

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