Monday, 4 July 2016

'पहाड़ का दिल।' (A poem dedicated to the hills & the tragic episode of natural disasters in my state of Uttarakhand)

    पहाड़ का दिल…
सींचता है नदियों को 
भींचता है मलबों को मुट्ठियों में ,
और पहाड़ सी चुप्पी साधे ,
मन  में हर व्यक्तिगत एहसास बांधे ,
हर बार कोशिश करता है खुद को समेटने की। 
नदियों को ज्यादा वेग पर टोकने की
विनती करता है जड़ों से 
मिट्टी-पत्थर को कसकर रोकने की। 

फिर कभी अचानक एक दिन जब,
आसमान साथ नहीं देता ,
और बरस जाता है 
निर्द्वंद, निर्मम, स्वछन्द 




तब असहाय होकर पहाड़.........,
कुछ कह नहीं पाता,
कुछ कर नहीं पाता ,
समेट नहीं पाता खुद को,
टोक नहीं पाता नदियों को ,
विनती नहीं कर पाता जड़ों से…....
तब उसी पहाड़ का दिल,
बेबस बह पड़ता है मिट्टी-मलबों में,
घरों, गावों और कस्बों  में। 
नदियाँ चीर के निकल जाती है बे-लगाम ,
और फिर पहाड़ होता है बदनाम।

पर .......
वो कुछ कहता नहीं,
फिर पहाड़ सी चुप्पी साधे…… 
मन  में हर व्यक्तिगत एहसास बांधे ….... 
फिर कोशिश करता है खुद को समेटने की,
नदियों को ज्यादा वेग पर टोकने की। 
विनती करता है जड़ों से, 
मिट्टी-पत्थर को कसकर रोकने की। 

क्योंकि शायद,
पहाड़ का दिल ,
उसका अधूरापन ,
और भीतर छिपी मज़बूरी ,
यही एहसास है ,
उसकी तठस्थ यात्रा की धुरी।
और करते है ,
उसके अस्तित्व की कहानी पूरी।


                                        -गोल्डी तिवारी

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