Friday, 24 June 2016

'कुछ हिन्दी में, हिन्दी के लिए': एक ग़ैर-हिन्दी प्रांत में।


नमस्ते सभी को!
मैं गोल्डी तिवारी, मूल रूप से भारत के हिंदी भाषी प्रांत में जन्मी पली-बड़ी हुई हालांकि स्कूल-कालेज में मेरी अधिकतर शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी माध्यम में हुई परंतु बचपन से ही मैनें स्वयं में हिंदी भाषा के प्रति एक अलग सा जुड़ाव पाया और अक्सर औपचारिक अनौपचारिक रूप से मैं अपनी हिंदी कवितायेँ लेखन लोगों के समक्ष अभिव्यक्त करती आई इसी दौरान अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा हेतु मुझे भारत के दक्षिण भारतीय प्रांत कर्नाटक के बैंगलोर शहर रहने का अवसर मिला वर्ष बेंगलोर में रहने के बाद ही असल मायनों में मुझे हिंदी का मोल समझ में आया, और ये इसलिये नहीं क्योंकि ये मूलरूप से एक गैर हिंदीभाषी प्रदेश है, और  मैं हिंदी से थोड़ा दूर हो गई...बल्कि ये देखकर कि जहाँ कर्नाटक-वासी इतनी शिद्दत से 'कन्नड़' का सम्मान करते है,स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हैआम बोलचाल में, पत्र-व्यहार में, राजकीय कार्यों में, मनोरंजन में, साहित्य, पठन-पाठन में, औपचारिक-अनौपचारिक सभी प्रकार के अवसरों में हमेशा 'कन्नड़' को ही प्राथमिकता देते है वहीं हमारी हिन्दी आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई ही लड़ रही है वास्तविकता यह है कि मेरे जैसे ही कई लोग जो हिंदी के प्रति स्नेह रखने का दावा करते है ,उनका हिंदी प्रेम भी महज चंद शब्दों,..रचनाओं..संवादों..गोष्ठियों अदि तक ही सीमित रहता है हिंदी विश्व की दूसरी सबसे ज्यादा बोली जानी वाली भाषा भले ही है परन्तु हमारी करनी और कथनी में बहुत अंतर होने से यह आज भी ये यूँ ही बिखरी पड़ी है......हिंदी को बढ़ावा देने के विचारों का आदान प्रदान तो हम समय-समय पर करते है, लेकिन हिंदी जहां है वहीं रह जाती है मैं मानती हुँ कि आज के परिवेश में केवल हिंदी में और वो भी प्रांजल हिंदी में  वार्तालाप करने की आशा रखना बेमानी सा स्वप्न होगा परन्तु हिंदी साहित्य का पठन-पाठन, त्रुटी-रहित लेखन और हिंदी के प्रति सम्मान का भाव रखने की अपेक्षा हिंदी-भाषियों से रखना तो स्वाभाविक सा है
आज मैं यहाँ बेंगलौर में भी देखती हुँ कि कन्नड़ हालाँकि एक द्रविड़ भाषा है लेकिन इसके आम बोलचाल में ऐसे कई शब्द प्रचलन में है जो मूल रूप से हिंदी अथवा संस्कृत के है ...लेकिन यहाँ के लोग उन्हें कन्नड़ ही मानकर चलते हैजैसे शुभोदय...सुआगमन...धन्यवाद....नमस्कार....शुभरात्रि....साथ ही कुछ अन्य शब्द जैसे झगडा, आराम से, खिड़की पक्का....अदि आदि ऐसे कई शब्द है जिन्हें यहाँ कन्नड़ शब्द मान के बोला जाता है, कारण यह है कि हिन्दी की केवल भौगोलिक, परन्तु भाषागत सीमाएँ वास्तव में असीम हैं इस तरह हिंदी हालांकि और भाषाओं में प्रयुक्त तो हो रही है परन्तु अपना अस्तित्व भी खोती जा रही है
जहाँ तक हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने का प्रश्न है, माना जाता है कि किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में व्यापक रूप में फैली होती हैपरंतु यहाँ रहकर मैने महसूस किया कि भले ही हिन्दी सबसे अधिक व्यापक क्षेत्र में और सबसे अधिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है किंतु भारत में अनेक उन्नत और समृद्ध भाषाएं हैं, जिन्हें विभिन्न प्रान्तों में मातॄभाषा माना जाता है, भारत की मूल प्रकृति बहुभाषिक है, ऐसे में उनके समक्ष हिंदी को राष्ट्रभाषा स्थापित करने पर आक्रोश स्वाभाविक है, क्योंकि भाषा कभी भी थोपी नहीं जा सकतीक्योंकि भाषाप्रेम बचपन से ही पनपता है,और जिस भाषा को बचपन से जाना नहीं, समझा नहीं उसे सहर्ष स्वीकारने के भाव पर मनुष्य आक्रामक ही होगा और हम अगर हिंदी को राष्ट्र भाषा घोषित कर इतिश्री कर भी लें परन्तु जब तक संजीदगी के साथ हिंदी का अपने भीतर से सम्मान नहीं करेंगे तब तक कुछ खास परिवर्तन संभव नहीं है
और शायद हमें हिंदी के औपचारिक तौर पर राष्ट्रभाषा बनने के विषय में अत्यधिक निराश होने की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि भारत में हिन्दी मुख्य भाषा के रूप में तो नहीं, पर पूरक भाषा के रूप में संवाद का माध्यम बन ही चुकी है मेरा निजी अनुभव है कि जिन प्रदेशों को हिंदी विरोधी कहा जाता है वहां भी भले सरकारी दफ्तरों में हिंदी में काम होता हो और ना ही बोलचाल में प्रयुक्त होती हो परन्तु अधिकांश लोग थोड़ा-बहुत समझ-बोल सकते है कहने का तात्पर्य है कि काम चलाया जा सकता है.....अधिकतर दक्षिण भारतीय हिंदी जानते हैं और वक्त-बेवक्त हिन्दी में गपशप भी कर सकते हैं जहाँ तक विरोध का सवाल है, उसके बारे में भी भ्रांति ही ज्यादा है यहाँ भी उतना हिन्दी विरोध नहीं है, जितना सोचा जाता है
अंत में कहना चाहूंगी की भले ही हिंदी पारंपरिक भाषा नहीं रही है.. अंग्रेजी के शब्द गए हैं..परन्तु भाषा तो अकसर लचीली होती ही है...शायद यह समय की मांग ही है और भाषा के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी भी......, परन्तु इस बदलाव के मध्य हिंदी के असल स्वरुप की जानकारी का भान ही होना और इसके प्रति सम्मान का खोना असल में यह चिन्तनीय विषय है
- गोल्डी तिवारी



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