Wednesday, 7 September 2016

कविता: अगर कभी।


अगर कभी। 

अगर कभी,
कोई ये कहे कि तुमने जो देखा आजतक,
वो एक धोखा है! 
अगर कभी,
कह दे कोई कि भुला दो वो सबकुछ ,
जहाँ से सब उपलब्धियों-गलतियों की शुरुआत हुई थी 
अगर कभी,
कोई छीन ले तुमसे,
वो सबकुछ जो तुमको कभी मिला अपने जन्म से ,
और कभी अपने अनुभव व संचित-करम  से। 
अगर कभी, 
कोई मनवा दे तुम्हें, 
की जो अबतक देखा-सुना, समझा-पहचाना,
वो सब कुछ था ही नहीं 
बस वर्णमाला सी थी एक,
जो ' '' '' '' बनकर साथ थी तुम्हारे,
बस कुछ समय तक, 
जिसे गुनगुनाते थे कभी तुम शौक से सर्वज्ञान समझ, 
और आज उन्हीं के क्रम के समीकरणों में लड़खड़ाते हो। 
बस कुछ सीढ़िया सी थी,
जिनपे पग-पग भर तुम ऊपर...और ऊपर चढ़े जाते हो। 
और ऊपर पहुँच कर देखते हो,
कि ऊपर तो बाक़ी है आसमानों के भी आसमाँ, 
और न जाने कितने बादलों पर,
अभी छूटने बाकि है इन पैरों के निशाँ।
पर.......,
प्रश्न यह नहीं कि कितने आसमां अभी और नपेंगे,
और कितने रह जायेंगे 
और यह भी नहीं कि,
और कितनी वर्णमालाएँ जपेंगे 
और कितने स्वर-व्यंजन याद रख पाएंगे। 
प्रश्न तो यह है,
कि आखिर 'कभी' तो थकान लगेगी,
'कहीँ' तो कदम लड़खड़ाएंगे,
और उन्हीं 'कहीँ' में,
'कभी' वो जमीन के किस्से याद आएंगे। 
और जितने वो किस्से याद आएंगे, 
जिंदगी के उतने ही हिस्से बंट जायेंगे। 
पर ये भी हो सकता है,
कि जब तक वो किस्से याद आएं,
जिंदगी का पल-पल बंट जाये, 
बंट जाए इतना कि,
एक भी हिस्सा तुम्हारे खुद का न रहे,
हर हिस्से में कभी किसी अपने का, 
तो किसी में तुम्हारे अहम् का हक़ रहे। 
पर........,
संभव है यह भी कि,
इतने में नींद तुम्हारी टूट जाए,
या कोई और झकझोर दे तुम्हें,
और कहे....,
"अरे क्या कोई सपना था बुरा?... 
जिससे जगे हो अभी-अभी?" 
और तुम मुस्कुरा दो,
और कहो,
"हाँ शायद था कोई सपना ही, 
और या फिर अब ये किसी सपने में हूँ
पर जो भी हो,
ज्यादा जरुरी है सबसे कि,
इन दोनों स्वप्नों के बीच की,
'अगर कभी' की दुनियां में थोड़ा ज्यादा जियूँ।"
                                                                                                                         -गोल्डी तिवारी। 

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